Thursday, September 1, 2011

अभी कौम नहीं है हमारी

कुछ वर्ष पूर्व, अफ़घानिस्तान में हिंदुस्तान कि सरकार ने डॉक्टरों का एक दल भेजा था| लड़ाई के बाद अफ़घानिस्तान का पुनर निर्माण का कार्यक्रम चालू हो गया था, और डॉक्टरों का यह दल उसी के चलते हिंदुस्तान कि एक पहल थी| हांलांकि सरकारी तौर पर यह सब civilian डॉक्टर थे, पर असल में यह हिन्दुस्तानी फ़ौज के अफसर थे| अफ़घानिस्तान में माहौल इस तरह का नहीं था कि civilian डॉक्टरों को भेजा जा सके|
कुछ समय पहले, उन्ही में से एक डॉक्टर से मेरी बात हो रही थी| वे अपने अफ़घानिस्तान के अनुभवों के बारे में बता रहे थे| हिन्दुस्तानी डॉक्टरों के लिए सुरक्षा के इंतज़ाम काफी मज़बूत थे| उनके साथ हमेशा अंगरक्षकों की एक टोली रहती थी| ऐसे में एक दिन इन जनाब ने अपने मेज़बान अंगरक्षक से पुछा, ऐसा क्यूँ है कि अफघानी डॉक्टरों को कोई सुरक्षा नहीं, जबकि हिन्दुस्तानी डॉक्टरों के साथ पूरी सुरक्षा है| उनके अंगरक्षक ने बड़ा साधारण लेकिन गहरा उत्तर दिया. उसका कहना था "आपको सुरक्षा दी गयी है, क्यूंकि आप अकेले है| आपकी कोई कौम नहीं है| आपको मारना बहुत आसान है| आपके लिए कोई खड़ा नहीं होगा| अगर हमें कोई मारेगा, तो हमारा पूरा गाओ, हमारी पूरी कौम हमारे लिए खड़ी हो जायेगी"|

मेरे विचार में उस अंगरक्षक कि कही यह बात बहुत महत्वपूर्ण है| सवाल यहाँ बदला लेने का नहीं है| सवाल यह है कि समाज क्या होता है| हम समाज किसे कहते है| समाज और समूह में क्या फर्क होता है|
समाज का एक अभिन्न अंग होता है "sense of belonging". ध्यान दे कि यह एक sense है (भाव), न कि "reason/logic/utility of belonging". यह अपनत्व का भाव समाज और समूह में फरक करता है| हिंदुस्तान के पतन में, हम समाज से समूह और समूह से भीड़ कि तरफ बढ़ गए है| भीड़ को मैं समूह से भी निकृष्ट हालत में मानता हू| भीड़ का अपना कोई मानस नहीं होता| या फिर ऐसा कहे कि भीड़ का मानस अनिश्चित होता है, और इसी लिए खतरनाक भीड़ होती है (अंग्रेजी में 'mob mentality' कहते है, जिसको बेहद अनिश्चित और खतरनाक मानते है)|
अफ़घानिस्तान में इतने वर्ष की बर्बादी के बावजूद भी, उनके समाज में एक अपनत्व दीखता है| और वह भी इस स्तर कि वह अपनों के लिए जान भी दे सकते है| इसमें यह ध्यान रखने कि बात है, कि यह अपनत्व अफ़घानिस्तान राष्ट्र के लिए नहीं, बल्कि अपनी कौम के लिए है| मेरा मानना है कि राष्ट्र के लिए अपनत्व हो भी नहीं सकता| अपनत्व तो अपनी गली के लिए, मोहल्ले कि लिए, गाँव और समाज के लिए ही होता है| यह अपनत्व धर्म और मज़हब में भी नहीं दीखता|

पश्चिम के देशों में तो समाज जैसी कोई चीज़ दीखती है नहीं है| वहा या तो एक व्यक्ति है और या फिर state है| हिंदुस्तान के शहरो में व्यक्ति और state के बीच अभी परिवार भी है| लेकिन परिवार के अस्तित्व पर सवाल खड़ा हो गया है| शायद एक पीढ़ी के बाद हम लोग भी पश्चिम जितने विकसित हो चुके होंगे और परिवार विलुप्त हो जायेंगे| यहाँ पर मै विकास और समाज/परिवार के विलुप्त होने को एक कार्य-कारण (cause-effect) सम्बन्ध में जोड़ रहा हु| आज का विकास भोगवादी अर्थव्यवस्था से परिभाषित होता है| और आज का विकास power के केन्द्रियेकरण को बढाता है| इसके चलते परिवार और समाज का कमज़ोर पड़ना और फिर विलुप्त होना लाज़मी है| इसमें हमारी technology के स्वभाव का भी एक बड़ा हाथ है| technology और power का सम्बन्ध एक महत्वपूर्ण मुद्दा है|
आजादी के बाद हिंदुस्तान में technology के इतिहास पर एक शोध होना चाहिए| ऐसा नहीं है कि आविष्कार केवल हिंदुस्तान के शहरों में, वैज्ञानिको की प्रयोगशाला में ही हुए है, बल्कि आविष्कार गाँव में भी हुए है| इस बात की पुष्टि अहमदाबाद स्थित honeybee network के लोग कर सकते है, jo पिछले कुछ वर्षों से ऐसे आविष्कारों को document करने का काम कर रहे है| मेरे विचार में इन दो तरह की technologies पर- इनके स्वभाव पर, इनके समाज पर असर पर, इनका power के साथ सम्बन्ध पर, शोध होना चाहिए|

खैर वापस समाज पर आते है, और अपनत्व के उस भाव पर जो समाज को समूह से अलग करता है| ऐसा नहीं है कि समाज हिंदुस्तान से विलुप्त ही हो गया है| हिन्दुतान इतना बड़ा और विविध देश है, कि किसी बदलाव को आते आते भी कई पीढियां लग जाती है| बदलाव चाहे अच्छा हो या बुरा, हिंदुस्तान कि अपनी एक चाल है| इस धीमी चाल का कारण जनसँख्या नहीं, बल्कि हिंदुस्तान कि विविधता है| विविधता का होना, यह दर्शाता है कि हिंदुस्तान मै अभी भी एक स्तर पर काफी विकेन्द्रित power equation है| एक तरफ जहा बड़े शहरों के पढ़े लिखे वर्ग में secularism के भूत के चलते, समानता और uniformity/standardization का फर्क ख़तम हो गया है, वही अनपद वर्ग का दिल अभी भी बड़ा है और वह असमानता से घबराता नहीं है| अनपद वर्ग अपने साथ अपने रीति रिवाज, अपनी भाषा, और अपनी मान्यताये लेके चलता है| पढ़ा लिखा वर्ग, उन सभी चीज़ें जो असमान है- के प्रति ग्लानी रखता है| तो अगर मै एक secularist हू, तो में टीका नहीं लगा सकता, दाढ़ी नहीं रख सकता, धोती नहीं बाँध सकता, टोपी नहीं पहन सकता, गाये को रोटी नहीं खिला सकता| अगर मै ऐसा करता हु, तो यह संभव है कि मेरे बाकी secular साथी मुझे fundamentalist कह कर अछूत कर दे|
secularism का वास्तव मतलब है कि में अपनी धोती बांधू और आप अपनी दाढ़ी रखे और फिर हम साथ काम कर सके, बात कर सके, बहस कर सके, disagree हो sake| secularism का मतलब यह नहीं है कि हम दोनों paint-shirt पहन ने लगे| paint-shirt पहन कर disagree होने में कोई बहादुरी नहीं है|

मेरे विचार में, इस आरोपित समानता ने अपनत्व ख़तम किया है| सामान होने के चक्कर में हमने ऐसी चीज़ें स्वीकारी है, ऐसा जीवन अपनाया है जो अपना नहीं लगता| मै यह भी मानता हु, कि अनपद वर्ग को असमानता से घबराहट या तकलीफ नहीं है| अनपद वर्ग के लिए समानता कोई मुद्दा नहीं है| दक्षिण भारत कि महिला बालों में गजरा पेहेंती है और उत्तर भारत कि महिला इसको बुरा मानती है| लेकिन उनमें इस बात कि ज़रुरत नहीं है कि दूसरी महिला भी गजरा पहने या न पहने| असमानता को दिल में जगह देना मेरे विचार में secularism है| समानता कि हट नहीं| ऐसे में एक महत्त्वपूर्ण विच्छेद करना ज़रूरी है| अंग्रेजी का शब्द community और हिंदी का शब्द समाज एक नहीं है| हमारा इनको एक दुसरे का translation मानना एक गलती है| community शब्द commune से आता है जहा समानता मुख्यतम मूल्य है| दूसरी ओर समाज में विविधता की बात आती है| विविधता समाज में समृद्धि दर्शाती है| विविधता और अपनत्व साथ साथ हो सकते है|

अन्ना के आन्दोलन में अभी समाज नहीं था| अभी समूह ही था| मेरा तात्पर्य अन्ना के आन्दोलन को बेकार बताना नहीं है| बल्कि यह कहना है कि आगे की दिशा समूह से समाज के तरफ की दिशा है| कुछ वर्ष पूर्व, गुडगाँव की एक फैक्ट्री के मजदूर आन्दोलन कर रहे थे| आन्दोलन तोड़ने के लिए पोलिसे ने लाठी चार्ज किया और मजदूरों की बेहरमी से पिटाई हुई| मीडिया ने इसको लाइव कोवेरगे दी थी| अगले दिन, गुडगाँव और आस पास के इलाको के लोग (आदमी और औरते) लाठी लेके वहा के SP के दफ्तर पहुँच गए| उस समय कोई sms अभियान ya facebook/twitter नहीं थे| ऐसे ही, करीब एक वर्ष पूर्व मायावती सरकार ने महेंद्र सिंह टिकैत के गिरफ्तारी के order पास कर दिए थे (टिकैत ने बिजनौर मै किसी सभा में चमार शब्द का प्रयोग किया था, जो की कानूनन तौर पर एक अपराध है)| टिकैत के गाँव ने उनको घेर लिया और पोलिसे को गाँव के अन्दर आने नहीं दिया| ऐसे में सरकार ने अतिरिक्त पोलिसे बल भेजा| फिर आस पास के और लोग इकठ्ठा हो गए| एक तरफ जहा पोलिसे बल बढ़ रहा था, वही दूसरी ओर बाकी इलाके के लोग आने लगे| यह किस्सा मीडिया में बहुत हलके रूप में प्रकट हुआ था| लोगो ने गिरफ्तार नहीं होने दिया टिकैत को| आखिर में सरकार और टिकैत के बीच एक गुप्त समझोता हुआ, जिसके चलते वहा से पोलिसे को हटाया गया और टिकैत ने एक local court में समर्पण किया|

मै यहाँ टिकैत से सहानुभूति या उनसे एक मत नहीं रख रहा| न ही में गुडगाँव की महिलाओं से एक मत रख रहा हु, जिन्होंने लाठी लेके SP office में पहुँच कर पोलिसे अफसरों की पिटाई कर दी| मै समाज के उस अपनत्व के भाव की बात को लाने की चेष्टा कर रहा हु जिसे उस अफ़घान सिपाही ने कही थी| अगर किसी आन्दोलन को देशव्यापी होना है तो अनपद वर्ग को शामिल होना होगा| और इसके चलते समानता और secularism के प्रति उदारता दिखानी होगी| दिल में असमानता की जगह बनानी होगी और political correctness को थोडा ढीला छोड़ना होगा|